रामनाम का महत्व समझाते हुए सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी कहते हैं कि, रामनाम स्वयं अपनेआप में सद्गुरु है। रामनाम के बारे में कहा गया है कि, रामनाम से नाश न हो ऐसा पाप नहीं है और रामनाम से उद्धार न हो ऐसा पापी नहीं है, और होगा भी नहीं। इसीलिए इस भारतभूमि में तुलसीदासजी, रामदासजी, जैसे अनेक संत रामनाम का महत्व हमारे समक्ष बयान करते हैं।
प्रभू श्रीराम को प्रसन्न करने के लिए बडी बडी तपस्याओं की अथवा साधनाओं की जरूरत नहीं है। यदि कोई रामजी की थोड़ीसी भी भक्ति करे, उनके लिए जरासे भी प्रयास करे, तब भी वे उस भक्त का कल्याण करते हैं।
कई संतों ने रामनाम का महत्व अनेक ग्रंथों के माध्यम से, अभंगो के माध्यम से, उनकी रचनाओं के माध्यम से बताया है। उदाहरण के तौर पर :
संत तुसलीदासजी अपने रामचरितमानस ग्रंथ में सुंदरकांड नामक पर्व में कहते है,
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
(सुंदरकांड २९)
(अर्थ: आप नगर में प्रवेश करके सभी कार्य कीजिए। श्रीराम को अपने हृदय में धारण करके काम करते हुए विष भी अमृत बन जाता है और शत्रु भी उसके साथ मित्रता कर लेता है। समुद्र गाय के खुर के आकार के गड्डे में समाया जाता है तथा अग्नि की दाहकता दूर हो जाती है।)
भागवत धर्म का महामंत्र ‘जय जय रामकृष्ण हरि’ श्रेष्ठ संत तुकारामजी को उनके सद्गुरु ने दिया। अमृतमंथन के समय निकला हुए हलाहल विष पी लेने पर परमशिवजी को दाह होने लगा और उस दाह का शमन केवल रामनाम का जाप करने से ही हुआ तथा साक्षात हनुमानजी भी सुंदरकांड में प्रभु श्रीरामचंद्र से कहते हैं,
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई॥
(सुंदरकांड १८९)
(अर्थ: हे रघुनाथ! सबकुछ आपके प्रताप के कारण ही हुआ। हे नाथ! इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है।)